Oct 7, 2011

जाने क्यूँ

जाने क्यूँ आज, दिल से फिर, एक आह निकली सी है,
जाने क्यूँ आज, शम्मा कहीं फिर जल के बुझी सी है,

भुलाया ना गया मुझसे तेरा सितम,
भुलाया तो ना गया मुझसे तेरा वो सितम
आज पुरानी टीस कहीं फिर से छिड़ी सी है, और जेहन में एक जद्दो-जेहद शुरू सी है

जाने क्यूँ आज, दिल से फिर, एक आह निकली सी है,
जाने क्यूँ आज, शम्मा कहीं फिर जल के बुझी सी है

यूँ तो वक़्त भुला देता है सभी जख़्मो को,
यूँ तो वक़्त, भुला देता है सभी जख़्मो को और सहला भी देता है कई  मज्मो को
पर जाने क्यूँ नई नज्मों में तेरी शरारत की  मौज़ूदगी सी है,
और क्यूँ हमेशा तन्हाई में भी तेरी ही याद घुली सी है

जाने क्यूँ आज दिल से फिर एक आह निकली सी है,
जाने क्यूँ आज कहीं शम्मा फिर जल के बुझी सी है,

खुद पर भरोसा करना आता था मुझको,
खुद पर भरोसा करना आता था मुझको,
तेरी खूबसूरत इनायतों से भी मिलती ज़िल्लत सी है
पर तेरी खूबसूरत इनायतों से भी अब मिलती ज़िल्लत सी है
और निकलती हर श्वास में मेरी बोझिल जिंदगी सी है,

जाने क्यूँ आज फिर दिल से एक आह निकली सी है,
जाने क्यूँ आज फिर कहीं शम्मा जल के बुझी सी है

खूबसूरत सा ख्वाब थी तुम,
गहरी नींद का इक खूबसूरत सा ख्वाब जो की अब टूट गया
लाख कोशिश कर के भी नहीं, आती वो नींद सी है,

जाने क्यूँ आज,दिल से फिर,एक आह निकली सी है,
जाने क्यूँ आज,शम्मा कहीं फिर जल के बुझी सी है

शाम की सरगोशी में आज फिर हवा तुझे छूके निकली सी है,
और चाँद ने भी रात की गहराई में ली तुझसे उधार चाँदनी सी है,
तुझे अंधेरों में ढ़ूंडती आँखों ने मेरी गीली पलको से पूछताछ की सी है

जाने क्यूँ आज,दिल से फिर, एक आह निकली सी है,
जाने क्यूँ आज,शम्मा कहीं फिर जल के बुझी सी है

लोग कहते हें की मैं गिर के सँभल गया,
और समझते हैं कि मैं रुक कर हूँ फिर चल पड़ा,
अब उनको क्या बताऊँ, जेहन में मेरे, इक धुन्द्ली ही सही,तस्वीर सी है,
जेहन में मेरे,इक धुन्द्ली ही सही,तेरी तस्वीर सी है,
और ख्यालों में कुछ यादें तेरी, अभी भी क़ैद ही सी है,

जाने क्यूँ आज,दिल से फिर,एक आह निकली सी है,
जाने क्यूँ आज,शम्मा कहीं फिर जल के बुझी सी है

यूँ तो अकेला चल ही पड़ा हूँ अपनी उस मंज़िल की और,
यूँ तो अकेला चल ही पड़ा हूँ अपनी उस मंज़िल की और,
पर जाने क्यूँ वो मंज़िल लगती अब सूनी सूनी सी है,
और क्यूँ हर मोड़ पर तेरे आने की उम्मीद सी है,

जाने क्यूँ आज, दिल से फिर, एक आह निकली सी है,
जाने क्यूँ आज, शम्मा कहीं फिर जल के बुझी सी है